नींद, जब आप होते हैं केवल आप सम्भावनाएँ केवल विभु में ही नहीं, अणु में भी है। पर्वत में ही नहीं, राई में भी बहुत कुछ समाया है। जिन्हें हम तुच्छ समझ लेते हैं, क्षुद्र कहकर उपेक्षित कर देते हैं, उनमें भी न जाने कितना कुछ ऐसा है, जो बेशकीमती है। जागरण के महत्त्व से तो सभी परिचित हैं। महर्षि कहते हैं कि निद्रा भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। चौथी वृत्ति के रूप में इसके स्वरूप और सत्य को समाधिपाद के दसवें सूत्र में उद्घाटित करते हैं-
अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा ॥ १/१०॥
शब्दार्थ- अभाव अभाव की प्रतीति को आश्रय करने वाली; वृत्तिः =वृत्ति; निद्रा=निद्रा है।
अर्थात् मन की यह वृत्ति, जो अपने में किसी विषय वस्तु की अनुपस्थिति पर आधारित होती है- निद्रा है। यही निद्रा ही सार्थक और यथार्थ परिभाषा है। नींद के अलावा हर समय मन अनेकों विषय वस्तुओं से भरा रहता है। भारी भीड़ होती है मन में। विचारों की रेल- पेल, अन्तर्द्वन्द्वों की धक्का- मुक्की क्षण- प्रतिक्षण हलचल मचाए रहती है। कभी कोई आकांक्षा अंकुरित होती है, तो कभी कोई स्मृति मन के पटल पर अपना रेखा चित्र खींचती है, यदा- कदा कोई भावी कल्पना अपनी बहुरंगी छटा बिखेरती है। हमेशा ही कुछ न कुछ चलता रहता है। यह सब क्षमता तभी होती है, जब सोये होते हैं गाढ़ी नींद में। मन का स्वरूप और व्यापार मिट जाता है, केवल होते हैंआप—बिना किसी उपाधि और व्याधि के।
परम पूज्य गुरुदेव कहते थे- नींद के क्षण बड़े असाधारण और आश्चर्य जनक होते हैं। कोई इन्हें समझ ले और सम्हाल ले, तो बहुत कुछ पाया जा सकता है। ऐसा होने पर साधकों के लिए यह योगनिद्रा बन जाती है, जबकि सिद्धजन इसे समाधि में रूपान्तरित कर लेते हैं। दिन के जागरण में जितनी गहरी साधनाएँ होती हैं, उससे कहीं अधिक गहरी और प्रभावोत्पादक साधनाएँ रात्रि की नींद में हो सकती है। वैदिक संहिताओं में अनेकों प्रकरण ऐसे हैं, जिनसे गुरुदेव के वचनों का महत्त्व प्रकट होता है।
ऋग्वेद के रात्रि सूक्त में कुशिक- सौभर व भारद्वाज ऋषि ने रात्रि की महिमा का बड़ा ही तत्त्वचिंतन पूर्ण गायन किया है। इस सूक्त के आठ मंत्र निद्रा को अपनी साधना बनाने वाले साधकों के लिए नित्य मननीय है। इनमें से छठवें मंत्र में ऋषि कहते हैं- ‘यावयावृक्यं वृकं यवय स्तेनभूर्म्ये। अथा नः सुतरा भव’॥ ६॥ ‘हे रात्रिमयी चित् शक्ति! तुम कृपा करके वासनामयी वृकी तथा पापमय वृक को अलग करो। काम आदि तस्कर समुदाय को भी दूर हटाओ। तदन्तर हमारे लिए सुख पूर्वक तरने योग्य बन जाओ। मोक्षदायिनी एवं कल्याणकारिणी बन जाओ।’
ये स्वर हैं उन महासाधकों के, जो निद्रा को अपनी साधना बनाने के लिए साहस पूर्ण कदम बढ़ाते हैं। वे जड़ता पूर्ण तमस् और वासनाओं के रजस् को शुद्ध सत्त्व में रूपान्तरित करते हैं। और निद्रा को आलस्य और विलास की शक्ति के रूप में नहीं, जगन्माता भगवती आदि शक्ति के रूप में अपना प्रणाम निवेदित करते हुए कहते हैं-
या देवी सर्वभूतेषु निद्रा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
देवी सप्तसती ५/२३- २५
शुभ रात्री...🙏
Wednesday, February 18, 2015
निद्रा साधना शक्ती
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