Friday, October 30, 2015

स्वप्न सुचना...ज्योतिष्याचार्य डॉ.सुहास

🙏हरी ॐ 🙏

स्वप्न सुचना..

सपने अगर निरंतर सर्प दिखाई पडे तो यह सर्पदोषपीडा का  सुचक है और दोषमुक्ती बाद धनवृध्दी का.....

Astro online...
www.astrotechlab.weebly.com

Thursday, October 29, 2015

मंत्रशक्ती - ज्योतिष्याचार्य डॉ.सुहास

To leave drinking habit - Dr.Suhas

If some has heavy wine drinker & u wish to release it from such bad habits then just follow remedies....

1) If u found drunker empty used bottel in which some used wine is there then fill it with toilet cleaning acid & kept it at west+south corner of your house where nobody can see & touch it for 3-4 month when u find he leave drink then take that bottle go to area where nobody is there at evening & burry it as assume we burry someone dead body & pray for god for free to him from such habits. Then return home speechless without see back. Take a bath & wear fresh cloth.
2) Take a new wine bottle move around his body for 7 times with brairav mantra & throw it at railway track when train will arriving.
3) Move full fresh wine bottle around his body from head to feet with same bhairav mantra & give brairav murti to drink with sankalp for drunker to release him from such habit.
4) Take a 250 gm ova & 2 glass water. Boil it till remains 1/4. Then poured it from cloth & fill into fresh clean water bottle & keep it into freeze. Then at every morning & evening give him half cup with empty stomach daily.

Above all remedies r work 100% just do it & report me output.

Consultant Dr.Suhas R. (Astrologer),Ph.D.
www.astrotechlab.weebly.com

Monday, October 19, 2015

महागौरी अष्टमरुप पूजा- डॉ.सुहास

Navratri Special:
महागौरी पूजन

ॐ महागौरी देव्ये

नवरात्र के नौ दिनों का पावन पर्व अब अपने अंतिम पड़ाव पर है. नवरात्र के नौ दिनों में प्रति दिन देवी दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है लेकिन नवरात्र के आठवें और नौवें दिन देवी दुर्गा के नौ रूपों के प्रतीक में कन्या पूजन का भी विधान है जो इस पर्व के महत्व को और भी बढ़ा देता है. महागौरी को भगवान गणेश की माता के रूप में भी जाना जाता है. आइए आज के इस अंक में हम महागौरी से जुड़े कथा और मंत्रों पर ध्यान दें.

महागौरी का स्वरूप

नवरात्र के आठवें दिन मां के आठवें स्वरूप महागौरी की उपासना की जाती है. मां की चार भुजाएं हैं. वह अपने एक हाथ में त्रिशूल धारण किए हुए हैं, दूसरे हाथ से अभय मुद्रा में हैं, तीसरे हाथ में डमरू सुशोभित है तथा चौथा हाथ वर मुद्रा में है. मां का वाहन वृष है. साथ ही मां का वर्ण श्वेत है.

महागौरी की कथा

अपने पूर्व जन्म में मां ने पार्वती रूप में भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी तथा शिव जी को पति स्वरूप प्राप्त किया था.

शिव जी की प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या करते हुए मां गौरी का शरीर धूल मिट्टी से ढंककर मलिन यानि काला हो गया था. जब शिवजी ने गंगाजल से इनके शरीर को धोया तब गौरी जी का शरीर गौर व दैदीप्यमान हो गया. तब ये देवी महागौरी के नाम से जानी जाती है

महागौरी की पूजा का फल

नवरात्र के दिनों में मां महागौरी की उपासना का सबसे बड़ा फल उन लोगों को मिलता है जिनकी कुंडली में विवाह से संबंधित परेशानियां हों. महागौरी की उपासना से मनपसंद जीवन साथी एवं शीघ्र विवाह संपन्न होगा. मां कुंवारी कन्याओं से शीघ्र प्रसन्न होकर उन्हें मनचाहा जीवन साथी प्राप्त होने का वरदान देती हैं. महागौरी जी ने खुद तप करके भगवान शिवजी जैसा वर प्राप्त किया था ऐसे में वह अविवाहित लोगों की परेशानी को समझती और उनके प्रति दया दृष्टि रखती हैं. यदि किसी के विवाह में विलंब हो रहा हो तो वह भगवती महागौरी की साधना करें, मनोरथ पूर्ण होगा.

नवरात्र व्रत: साधना विधान (पूजन विधि)

महागौरी की पूजा करने का बेहद सरल उपाय (विधान) है. सबसे पहले लकड़ी की चौकी पर या मंदिर में महागौरी की मूर्ति मूर्ति अथवा तस्वीर स्थापित करें. इसके बाद चौकी पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर महागौरी यंत्र रखें तथा यंत्र की स्थापना करें. मां सौंदर्य प्रदान करने वाली हैं. हाथ में श्वेत पुष्प लेकर मां का ध्य

ध्यान के बाद मां के श्री चरणों में पुष्प अर्पित करें तथा यंत्र सहित मां भगवती का पंचोपचार विधि से अथवा षोडशोपचार विधि से पूजन करें तथा दूध से बने नैवेद्य का भोग लगाएं. तत्पश्चात् ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे. मंत्र की तथा साथ में ॐ महा गौरी देव्यै नम: मंत्र की इक्कीस माला जाप करें तथा मनोकामना पूर्ति के लिए मां से प्रार्थना करें. अंत में मां की आरती और कीर्तन करें.

कोलकाता की महाष्टमी: कोलकाता में महाष्टमी के दिन धूमधाम देखते ही बनती है. दुर्गा पूजा के आठवें दिन वहां के पंडालों में विशेष रूप से भक्तों की भीड़ जमा होती है.

महागौरी सदैव मनोकामनाओं को पूर्ण करती हैं. माता की पूजा अर्चना करने के लिए एक सरल मंत्र निम्न है :

मंत्र: या देवी सर्वभू‍तेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

अर्थ: हे माँ! सर्वत्र विराजमान और माँ गौरी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है. हे माँ, मुझे सुख-समृद्धि प्रदान करो.

ध्यान मंत्र

वन्दे वांछित कामार्थेचन्द्रार्घकृतशेखराम्

सिंहारूढाचतुर्भुजामहागौरीयशस्वीनीम्॥

पुणेन्दुनिभांगौरी सोमवक्रस्थितांअष्टम दुर्गा त्रिनेत्रम।

वराभीतिकरांत्रिशूल ढमरूधरांमहागौरींभजेम्॥

पटाम्बरपरिधानामृदुहास्यानानालंकारभूषिताम्।

मंजीर, कार, केयूर, किंकिणिरत्न कुण्डल मण्डिताम्॥

प्रफुल्ल वदनांपल्लवाधरांकांत कपोलांचैवोक्यमोहनीम्।

कमनीयांलावण्यांमृणालांचंदन गन्ध लिप्ताम्॥

स्तोत्र मंत्र

सर्वसंकट हंत्रीत्वंहिधन ऐश्वर्य प्रदायनीम्।

ज्ञानदाचतुर्वेदमयी,महागौरीप्रणमाम्यहम्॥

सुख शांति दात्री, धन धान्य प्रदायनीम्।

डमरूवाघप्रिया अघा महागौरीप्रणमाम्यहम्॥

त्रैलोक्यमंगलात्वंहितापत्रयप्रणमाम्यहम्।

वरदाचैतन्यमयीमहागौरीप्रणमाम्यहम्॥

कवच मंत्र

ओंकार: पातुशीर्षोमां, हीं बीजंमां हृदयो।

क्लींबीजंसदापातुनभोगृहोचपादयो॥

ललाट कर्णो,हूं, बीजंपात महागौरीमां नेत्र घ्राणों।

कपोल चिबुकोफट् पातुस्वाहा मां सर्ववदनो॥

भगवती महागौरी का ध्यान स्तोत्र और कवच का पाठ करने से सोमचक्र जाग्रत होता है, जिससे चले आ रहे संकट से मुक्ति होती है, पारिवारिक दायित्व की पूर्ति होती है व आर्थिक समृद्धि होती है. मां गौरी ममता की मूर्ति मानी जाती हैं जो अपने भक्तों को अपने पुत्र समान प्रेम करती हैं.

ज्योतिष्याचार्य डॉ.सुहास
www.astrotechlab.weebly.com

Saturday, October 17, 2015

नशामुक्ती का सरल उपाय-डॉ.सुहास

षष्टम रुप मॉ कात्यायनी - डॉ.सुहास

 मॉ कात्यायनी कथा

माँ कात्यायनी माँ दुर्गा का छठा स्वरूप हैं. नवरात्र के छठे दिन इस मंत्र से माता कात्यायनी की पूजा वंदना करना चाहिए.
नवरात्री के छठे दिन आदिशक्ति मां दुर्गा की षष्ठम रूप और असुरों तथा दुष्टों का नाश करनेवाली भगवती कात्यायनी की पूजा की जाती है. मार्कण्डये पुराण के अनुसार जब राक्षसराज महिषासुर का अत्याचार बढ़ गया, तब देवताओं के कार्य को सिद्ध करने के लिए देवी मां ने महर्षि कात्यान के तपस्या से प्रसन्न होकर उनके घर पुत्री रूप में जन्म लिया. चूँकि महर्षि कात्यान ने सर्वप्रथम अपने पुत्री रुपी चतुर्भुजी देवी का पूजन किया, जिस कारण माता का नाम कात्यायिनी पड़ा. मान्यता है कि यदि कोई श्रद्धा भाव से नवरात्री के छठे दिन माता कात्यायनी की पूजा आराधना करता है तो उसे आज्ञा चक्र की प्राप्ति होती है. वह भूलोक में रहते हुए भी अलौकिक तेज़ से युक्त होता है और उसके सारे रोग, शोक, संताप, भय हमेशा के लिए विनष्ट हो जाते हैं. मान्यता है कि भगवान श्री कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए रुक्मिणी ने इनकी ही आराधना की थी, इनका रूप अत्यंत ही भव्य और दिव्य हैं जिस कारण मां कात्यायनी को मन की शक्ति कहा गया है. मा कत्यायानी की अराधना करने से मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म , काम , मोक्ष फलो की प्राप्ति होती हैं.

मंत्र : ॐ क्रों क्रों क्रात्यायिन्यै क्रों क्रों फट

ज्योतिष्याचार्य डॉ.सुहास
www.astrotechlab.weebly.com

Friday, October 16, 2015

देवी का पंचम रुप : डॉ.सुहास रोकडे

मॉ स्कंदादेवी सविस्तर कथा....

“सिंहासनगता नित्यं पद्याञ्चितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥“

श्री दुर्गा का पंचम रूप श्री स्कंदमाता हैं। श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं।
इनकी आराधनासे मनुष्य सुख-शांति की प्राप्ति करता है। सिह के आसन पर विराजमान तथा कमल के पुष्प से सुशोभित दो हाथो वाली यशस्विनी देवी स्कन्दमाता शुभदायिनी है।

नवरात्री दुर्गा पूजा पंचमी तिथि – स्कंदमाता की पूजा

माँ दुर्गा का पंचम रूप स्कन्दमाता के रूप में जाना जाता है. भगवान स्कन्द कुमार (कार्तिकेय)की माता होने के कारण दुर्गा जी के इस पांचवे स्वरूप को स्कंद माता नाम प्राप्त हुआ है. भगवान स्कन्द जी बालरूप में माता की गोद में बैठे होते हैं इस दिन साधक का मन विशुध्द चक्र में अवस्थित होता है. स्कन्द मातृस्वरूपिणी देवी की चार भुजायें हैं, ये दाहिनी ऊपरी भुजा में भगवान स्कन्द को गोद में पकडे हैं और दाहिनी निचली भुजा जो ऊपर को उठी है, उसमें कमल पकडा हुआ है। माँ का वर्ण पूर्णतः शुभ्र है और कमल के पुष्प पर विराजित रहती हैं। इसी से इन्हें पद्मासना की देवी और विद्यावाहिनी दुर्गा देवी भीकहा जाता है। इनका वाहन भी सिंह है|
माँ स्कंदमाता सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी हैं| इनकी उपासना करने से साधक अलौकिक तेज की प्राप्ति करता है | यह अलौकिक प्रभामंडल प्रतिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता है| एकाग्रभाव से मन को पवित्र 
करके माँ की स्तुति करने से दुःखों से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है|

स्कन्दमाता की पूजा विधि :

कुण्डलिनी जागरण के उद्देश्य से जो साधक दुर्गा मां की उपासना कर रहे हैं उनके लिए दुर्गा पूजा का यह दिन विशुद्ध चक्र (Visuddha Chakra)की साधना का होता है. इस चक्र का भेदन करने के लिए साधक को पहले मां की विधि सहित पूजा करनी चाहिए. पूजा के लिए कुश अथवा कम्बल के पवित्र आसन पर बैठकर पूजा प्रक्रिया को उसी प्रकार से शुरू करना चाहिए जैसे आपने अब तक केचार दिनों में किया है फिर इस मंत्र से देवी की प्रार्थना करनी चाहिए “सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया. शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी.अब पंचोपचार विधि से देवी स्कन्दमाता की पूजा कीजिए. नवरात्रे की पंचमी तिथि को कहीं कहीं भक्त जन उद्यंग ललिता का व्रत (Udyang Lalita Vrat) भी रखते हैं. इस व्रत को फलदायक कहा गया है. जो भक्त देवी स्कन्द 
माता की भक्ति-भाव सहित पूजन करते हैं उसे देवी की कृपा प्राप्त होती है. देवी की कृपा से भक्त की मुराद पूरी होती है और घर में सुख, शांति एवं समृद्धि रहती है.

स्कन्दमाता की मंत्र : 

सिंहासना गता नित्यं पद्माश्रि तकरद्वया |
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ||

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

स्कन्दमाता की ध्यान : 

वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा स्कन्दमाता यशस्वनीम्।।

धवलवर्णा विशुध्द चक्रस्थितों पंचम दुर्गा त्रिनेत्रम्।
अभय पद्म युग्म करां दक्षिण उरू पुत्रधराम् भजेम्॥

पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानांलकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल धारिणीम्॥

प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वांधरा कांत कपोला पीन पयोधराम्।
कमनीया लावण्या चारू त्रिवली नितम्बनीम्॥

स्कन्दमाता की स्तोत्र पाठ : 

नमामि स्कन्दमाता स्कन्दधारिणीम्।
समग्रतत्वसागररमपारपार गहराम्॥

शिवाप्रभा समुज्वलां स्फुच्छशागशेखराम्।
ललाटरत्नभास्करां जगत्प्रीन्तिभास्कराम्॥

महेन्द्रकश्यपार्चिता सनंतकुमाररसस्तुताम्।
सुरासुरेन्द्रवन्दिता यथार्थनिर्मलादभुताम्॥

अतर्क्यरोचिरूविजां विकार दोषवर्जिताम्।
मुमुक्षुभिर्विचिन्तता विशेषतत्वमुचिताम्॥

नानालंकार भूषितां मृगेन्द्रवाहनाग्रजाम्।
सुशुध्दतत्वतोषणां त्रिवेन्दमारभुषताम्॥

सुधार्मिकौपकारिणी सुरेन्द्रकौरिघातिनीम्।
शुभां पुष्पमालिनी सुकर्णकल्पशाखिनीम्॥

तमोन्धकारयामिनी शिवस्वभाव कामिनीम्।
सहस्त्र्सूर्यराजिका धनज्ज्योगकारिकाम्॥

सुशुध्द काल कन्दला सुभडवृन्दमजुल्लाम्।
प्रजायिनी प्रजावति नमामि मातरं सतीम्॥

स्वकर्मकारिणी गति हरिप्रयाच पार्वतीम्।
अनन्तशक्ति कान्तिदां यशोअर्थभुक्तिमुक्तिदाम्॥

पुनःपुनर्जगद्वितां नमाम्यहं सुरार्चिताम्।
जयेश्वरि त्रिलोचने प्रसीद देवीपाहिमाम्॥

स्कन्दमाता की कवच :

ऐं बीजालिंका देवी पदयुग्मघरापरा।
हृदयं पातु सा देवी कार्तिकेययुता॥

श्री हीं हुं देवी पर्वस्या पातु सर्वदा।
सर्वांग में सदा पातु स्कन्धमाता पुत्रप्रदा॥

वाणंवपणमृते हुं फ्ट बीज समन्विता।
उत्तरस्या तथाग्नेव वारुणे नैॠतेअवतु॥

इन्द्राणां भैरवी चैवासितांगी च संहारिणी।
सर्वदा पातु मां देवी चान्यान्यासु हि दिक्षु वै॥

वात, पित्त, कफ जैसी बीमारियों से पीड़ित व्यक्ति को स्कंदमाता की पूजा करनी चाहिए और माता को अलसी चढ़ाकर प्रसाद में रूप में ग्रहण करना चाहिए || 

नवरात्री में दुर्गा सप्तशती पाठ किया जाता हैं

स्कन्द माता कथा :

दुर्गा पूजा के पांचवे दिन देवताओं के सेनापति कुमार कार्तिकेय की माता की पूजा होती है. कुमार कार्तिकेय को ग्रंथों में सनत-कुमार, स्कन्द कुमार के नाम से पुकारा गया है. माता इस रूप में पूर्णत: ममता लुटाती हुई नज़र आती हैं. माता का पांचवा रूप शुभ्र अर्थात श्वेत है. जब अत्याचारी दानवों का अत्याचार बढ़ता है तब माता संत जनों की रक्षा के लिए सिंह पर सवार होकर दुष्टों का अंत करती हैं. देवी स्कन्दमाता की चार भुजाएं हैं, माता अपने दो हाथों में कमल का फूल धारण करती हैं और एक भुजा में भगवान स्कन्द या कुमार कार्तिकेय को सहारा देकर अपनी गोद में लिये बैठी हैं. मां का चौथा हाथ भक्तो को आशीर्वाद देने की मुद्रा मे है.देवी स्कन्द माता ही हिमालय की पुत्री पार्वती हैं इन्हें ही माहेश्वरी और गौरी के नाम से जाना जाता है. यह पर्वत राज की पुत्री होने सेपार्वती कहलाती हैं, महादेव की वामिनी यानी पत्नी होने से माहेश्वरी कहलाती हैं और अपने गौर वर्ण के कारण देवी गौरी के नाम से पूजी जाती हैं. 
माता को अपने पुत्र से अधिक प्रेम है अत: मां को अपने पुत्र के नाम के साथ संबोधित किया जाना अच्छा लगता है. जो भक्त माता के इस स्वरूप की पूजा करते है मां उस पर अपने पुत्र के समान स्नेह लुटाती हैं.

ज्योतिष्याचार्य डॉ.सुहास रोकडे
www.astrotechlab.weebly.com

Monday, October 12, 2015

नवरात्री पुजन विधी-डॉ.सुहास रोकडे

नवरात्री पूजन विधि

"ॐ दुं दुर्गाय नम:" 

शुभ नवरात्री
Download book : By Dr.Suhas Rokde

दुर्गा नवरुप मंत्र जप दिनक्रमानुसार

१) शैलपुत्री       - ॐ शं शैलपुत्र्यै फट
२) ब्रम्हचारीणी - ॐ ब्रं ब्रंम्हचारीण्यै नम:
३) चंद्रघंटा       - ॐ चं चं चं चंद्रघंटायै हुं
४) कुष्मांडा     - ॐ क्रीं कुष्माण्डयै क्री ॐ
५) स्कंदा         - ॐ स्कंदायै देव्यै ॐ
६) कात्यायनी  - ॐ क्रौं क्रौं कात्यायन्यै क्रौं क्रौं फट
७) कालिका    - ॐ क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं  ह्रीं हुं हुं दक्षिण कालिके क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हुं हुं फट
८) महागौरी     - ॐ श्रीं महागौर्यै ॐ
९) सिध्देश्वरी   - ॐ शं सिद्धीप्रदायै शं ॐ

नवरात्रि की प्रतिपदा के दिन प्रातः स्नान करके घट स्थापन के बाद संकल्प लेकर दुर्गा की मूर्ति या चित्र की षोडशोपचार या पंचोपचार से गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि निवेदित कर पूजा करें। मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखें।
शुद्ध पवित्र आसन ग्रहण कर ऊं दुं दुर्गाये नमः मंत्र का रुद्राक्ष या चंदन की माला से पांच या कम से कम एक माला जप कर अपना मनोरथ निवेदित करें। पूरी नवरात्रि प्रतिदिन जप करने से मां दुर्गा प्रसन्न होती हैं और मनोकामना पूरी होती है। वर्ष में चार नवरात्रों का वर्णन मिलता है - दो गुप्त एवं दो प्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष नवरात्रों में एक को शारदीय व दूसरे को वासन्तिक नवरात्र कहा जाता है। नवरात्र की पूर्व संध्या में साधक को मन में यह संकल्प लेना चाहिए कि मुझे शक्ति की उपासना करनी है। उसे चाहिए कि वह रात्रि में शयन ध्यानपूर्वक करे। प्रातःकाल उठकर भगवती का स्मरण कर ही नित्य क्रिया प्रारंभ करनी चाहिए। नीतिगत कार्यों से जुड़कर अनीतिगत कार्यों की उपेक्षा करनी चाहिए। आहार सात्विक लेना चाहिए और आचरण पवित्र रखना चाहिए। नवरात्रि में सम्यक् प्रकार से सत्याचरण करते हुए साधक शक्ति का अर्जन कर सकता है। पूजन मन को एकाग्रचित्त करके करना चाहिए। यदि संभव हो तो नित्य श्रीमद्भागवत, गीता, देवी भागवत आदि ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए, इससे मां दुर्गा की पूजा में मन अच्छी तरह लगेगा। जिनके परिवार में शारीरिक, मानसिक या आर्थिक किसी भी प्रकार की समस्या हो, वे मां दुर्गा से रक्षा की कामना करें। इससे उन्हें चिंता से मुक्ति भी मिलेगी और मन भी उत्साहित रहेगा।

नियम :

अपनी वाचा, आचरण, चिंतन पर अनैतिक आवरण न रखे l
कई बार ऐसा होता है कि मां दुर्गा की पूजा विधि-विधानपूर्वक करने पर भी वांछित फल की प्राप्ति नहीं हो पाती। दुर्गा जी की पूजा में दूर्वा, तुलसी, आंवला आक और मदार के फूल अर्पित नहीं करें। लाल रंग के फूलों व रंग का अत्यधिक प्रयोग करें।
लाल फूल नवरात्र के हर दिन मां दुर्गा को अर्पित करें। शास्त्रों के अनुसार घर में मां दुर्गा की दो या तीन मूर्तियां रखना अशुभ है।
मां दुर्गा की पूजा सूखे वस्त्र पहनकर ही करनी चाहिए, गीले कपड़े पहनकर नहीं। अक्सर देखने में आता है कि महिलाएं बाल खुले रखकर पूजन करती हैं, जो निषिद्ध है। विशेष कर दुर्गा पूजा या नवरात्रि में हवन, पूजन और जप आदि के समय उन्हें बाल खुले नहीं रखने चाहिए।

ज्योतिष्याचार्य डॉ. सुहास रोकडे
Consultant Astrologer

Sunday, October 11, 2015

सर्व पितृ अमावस्या - डॉ.सुहास रोकडे


सर्व-पितृ अमावस्या कल - कैसे करें तर्पण

12 अक्टूबर साल 2015 का वह दिन है जिस दिन आप अपनी सभी प्रकार की समस्याओं से मुक्ती पा सकते हैं, क्योंकि यह श्राद्ध का अंतिम दिन है, जिसे सर्व-पितृ अमावस्या भी कहा जाता है। आइए अब जानते हैं इस दिन के बारे में विस्तार में।

कैसे करें तर्पण

तर्पण मुहूर्त :
११ ऑक्टोबर रात्री  २.५८ से
१२ ऑक्टोबर प्रात: ५.३५ पर्यंत.

तांबे के पात्र में गंगाजल लें। ( शुद्ध जल भी ले सकते हैं)उसमें गाय का कच्चा दूध और थोड़ा काला तिल डालें।अब उस पात्र में कुशा डालकर उसे मिलाएँ।स्टील का एक अन्य पात्र (लोटा) लें और उसे अपने सामने रखें।दक्षिणाभिमुख होकर खड़े हो जाएँ।कुशा के साथ तांबे के पात्र के जल को स्टील के लोटे में धीरे-धीरे गिराएँ, ध्यान रहे कि कुशा न गिरे।जल को गिराते समय नीचे लिखे मंत्र का उच्चारण करें।
ॐ पितृ गणाय विद्महे जगत धारिण्ये धीमहि तन्नो पितरो प्रचोदयात् ।

अंत में ज़रूरतमंदों को खाना खिलाये.

भोजन विधान

सर्व-पितृ अमावस्या के दिन तर्पण के बाद श्रद्धा से ज़रूरतमंदों को भोजन कराना चाहिए। शास्त्रों में इसका बहुत बड़ा महत्व बताया गया है। परंपरा के अनुसार श्राद्ध के बाद गाय, कौवा, अग्नि, चींटी और कुत्ते को खाना दिया जाता है। इससे पितरों को शांति मिलती है और वे तृप्त होते हैं।

ज्योतिष्याचार्य
डॉ.सुहास रोकडे
www.astrotechlab.weebly.com

Saturday, October 10, 2015

जगतजननी दशमहाविद्या - डॉ.सुहास रोकडे

देवी कालिका, तारा, भुवनेश्‍वरी, भैरवी...
तन्त्रोक्त दशमहाविद्या

देवी कालिका, तारा, भुवनेश्‍वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व कमला या तन्त्रोक्त दशमहाविद्या होत. महाभारत पुराण, चामुंडातंत्र आदी ग्रंथांमध्ये या सर्व देवींचा उल्लेख आहे व त्यांच्याविषयी कथा विभिन्न ग्रंथांत विभिन्न प्रकारे वाचावयास मिळतात. यातील सर्वाधिक प्रसिद्ध कथा आहे महादेव व सती यांची. ही सर्वश्रुत कथा इथे काहीशी निराळी आहे.
एकदा देवाधिदेव महादेव महाशक्तीची आराधना करीत होते. त्यावेळी त्यांना महामायेचा स्त्रीरूपात लाभ होईल असा वर प्राप्त झाला. आराध्य महाशक्तीने महादेवाला प्रसन्न होऊन धराधामी अवतीर्ण होऊन पत्नी रूपात जन्म घेईन असे वचन दिले. ही गोष्ट ब्रह्मदेवांना ज्ञात होताच त्यांनी आपले पुत्र प्रजापतींना बोलावून सांगितले की देवी महामाया धराधामी अवतीर्ण होणार आहे. ती तुझी कन्या म्हणून जन्माला यावी अशी इच्छा आहे. ब्रह्मदेवांचा यामागील हेतू जगाचे कल्याण व्हावे हाच होता. पित्याच्या आज्ञेप्रमाणे दक्षाने घोर तप आरंभिले. महामाया त्याच्या तपाने प्रसन्न झाली व तिने दक्षाची प्रार्थना स्वीकारली. त्याप्रमाणे महादेवाची पत्नी होण्यापूर्वी महामाया दक्षपत्नी प्रसूतीची कन्या म्हणून जन्माला आली. परंतु, तत्पूर्वी तिने दक्षाला एक अट घातली. ती अशी की काही कारणाने दक्षाचे पुण्य क्षीण झाले अथवा एखादे प्रसंगी ती दक्षाकडून अपमानित झाली, तर त्याच क्षणी ती देहत्याग करेल.
दक्ष प्रजापती व प्रसूतीची ही कन्या अपरूप सुंदर होती. तिचे ‘सती’ असे नाव ठेवण्यात आले. सती बालपणापासूनच शिवभक्त होती. सदैव शिवाची पूजा-अर्चा करण्यात ती मग्न असे. यथासमय ती विवाहयोग्य झाली. तेव्हा दक्षाने तिच्या स्वयंवराचे आयोजन केले. सतीने जन्मापासूनच महादेवाला मनोमन पती म्हणून वरले होते आणि दक्षाला तिने घातलेल्या अटीचे स्मरण होते. परंतु, पितृप्रेम आडवे आले. त्यामुळे आपल्या लाडक्या सुंदर सुलक्षणी लेकीला स्मशानवासी दरिद्री शिवाला अर्पण करण्याची कल्पनाच त्याला सहन होईना. म्हणून महादेव वगळता विश्‍वातील समस्त राजे लोकांना स्वयंवराचे निमंत्रण देण्यात आले. अखेर व्हायचे तेच झाले. निमंत्रण नसूनही महादेव स्वयंवर स्थळी येऊन उपस्थित झाले. कारण आपली पत्नी होण्यासाठीच स्वयं महाशक्ती पृथ्वीतलावर अवतीर्ण झालेली आहे, हे ते जाणून होते. सतीने पित्याची योजना सफल होऊ दिली नाही. पृथ्वीवरील समस्त निमंत्रितांकडे दुर्लक्ष करून तिने महादेवांना वरमाला अर्पण केली व ती तत्काळ महादेवासह कैलासावर निघून गेली.
दक्षाला हा अपमान सहन झाला नाही. झालेल्या अपमानाचा बदला घेण्यासाठी त्याने एक महायज्ञ करण्याचे ठरविले. आपल्या कन्या- जामाताला वगळून संपूर्ण त्रैलोक्यातील अतिथींना निमंत्रित केले. इकडे नारद कैलासावर जाऊन पोहोचले व त्यांनी दक्षाने आयोजिलेल्या महायज्ञाची बातमी सतीला सांगितली. सती पित्याकडे जाण्यास निघाली. त्रिकालज्ञ शिवाला भविष्यातील घटना ज्ञात झाली व त्याने सतीची खूप समजूत घालून तिला पित्याकडे जाऊ नये, असा प्रयत्न केला. परंतु व्यर्थ. सतीला पतीचे म्हणणे अजिबात पटले नाही. उलट ती अत्यंत क्रूद्ध झाली. आपले मूळ स्वरूपाचे महादेवाला विस्मरण झाले आहे, असे वाटून ती अपमानित झाली व तिने आपले भयंकर कालिस्वरूप प्रकट केले. तिचे ते रौद्र रूप पाहून स्वयं महादेव अतिशय घाबरले व पळत सुटले. त्यांची ती दयनीय अवस्था पाहून सतीला त्यांची दया आली व शिवशंकराला अडविण्यासाठी ती दाही दिशांना दहा विभिन्न रूपे धारण करून उभी ठाकली. महादेव जिकडे जात त्या दिशेला एक अतिभव्य, भयंकर देवीमूर्ती उभी असलेली त्यांना दिसू लागली. त्यामुळे जाण्याचे सर्व मार्ग अडविल्याने ते आपल्या पूर्वीच्या स्थानी आले. पाहतात तो इथेही एक सर्वग्रासी संहारकारिणी कालिमूर्ती उभी होती. थकून गेलेल्या शिवाने विचारले कोण तू? माझी प्राणप्रिय पत्नी कुठे आहे? तेव्हा हसतच त्या मूर्तीने उत्तर दिले, ‘मीच आहे तुमची सती. तुमची पत्नी होण्यासाठी मी गौरवर्ण धारण केला होता. मी म्हणजे संहारकारिणी कालिका आहे आणि दशदिशांना ज्या देवीमूर्ती तुम्ही आता बघितल्या, त्या सर्व माझीच रूपे होत. देवा, शंकरा! भिऊ नका. मीच सर्व शक्तीचा आधार आहे. तुमची इच्छा असेल तर मी व माझ्या या दहा शक्ती मिळून दक्षाच्या यज्ञाचा याच क्षणी विध्वंस करू शकतो. एवढे बोलून तिने पुन्हा आपले सतीचे रूप धारण केले. महादेव म्हणाले, देवी क्षमा कर. मी तुझे खरे स्वरूप विसरलो होतो. परंतु हे सती, तू सर्वस्वरूपिणी आहेस. परमाप्रकृती-परमेश्‍वरी आहेस. आता तुझी इच्छा असेल तसे करावे.
अशा प्रकारे त्यावेळी दशादिशांना प्रकट झालेल्या दशमहाविद्यांचे वर्णन काही ग्रंथांमध्ये आढळते.
१) देवी कालिकाः तंत्रसार ग्रंथानुसार कालिका चतुर्भुजा असून मुखकेशी आहे. तिचे मुख मेघाप्रमाणे कृष्णवर्णी व भयदायक आहे. गळ्यात मुंडमाळ धारण केलेल्या असून डाव्या हातांमध्ये खड्‌ग व नरमुंड आहेत. तर उजवीकडील हात अभयमुद्रा व वरमुद्रा दर्शवितात. हातातील खड्‌ग अज्ञान निवारणाचे प्रतीक असून छिन्न मस्तक जिवांच्या अहंकाराचे प्रतीक आहे. तिचे त्रिनेत्र सूर्याप्रमाणे तेजस्वी असून ओठांवर रक्तबिंदू असले तरी मुखावर हास्य आहे. दुर्जनांचा संहार करून मर्त्य जिवांना अभय प्रदान करणारी अशी ही कालिका देवी आहे.
२) देवी ताराः तारा निद्रिस्त शिवाच्या हृदयावर पाय ठेवून उभी आहे. कारण ती शक्तिरूपिणी आहे. वर्ण निळा असून लालभडक जीभ बाहेर लोंबत आहेत. तिचे आसन म्हणजे जळणारी चिता जे ज्ञानाग्नीचे प्रतीक आहे. चार हातांमध्ये खड्‌ग, परशू, कमळ व नरमुंड आहे. तिने मस्तकावर पाच मानवी कवट्या धारण केलेल्या आहेत. ज्या शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गंध या तन्मात्रांचे प्रतीक होत. तिने अंगावर धारण केलेले सर्पालंकार वैराग्याचे प्रतीक आहेत. जगताला भवसागरातून पार करून नेणारी म्हणून हिचे नाव तारा आहे.
३) देवी षोडशीः अत्यंत तेजस्वी गौरवर्णाची सौंदर्यवती षोडशी स्मितहास्य करीत आहे. त्रिनयना असून केशकलाप मुक्त आहेत. चारी हातांमध्ये अंकुश, धनुष्य बाण व बंधनास्त्र आहेत. ललिता -श्रीविद्या राजराजेश्‍वरी अशा नावांनी सुद्धा संबोधिली जाते. तिचा गौरवर्ण ज्ञानशक्तीचे प्रतीक आहे. ती पंचासनावर बसलेली आहे. पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय, पंचमहाभूत आणि मन या सोळांची कारणस्वरूप म्हणून ती षोडशी नावाने प्रसिद्ध आहे.
४) देवी भुवनेश्‍वरीः भुवनेश्‍वरी देवी उगवत्या सूर्याप्रमाणे ज्योतिर्मय असून तिच्या कपाळावर अर्धचंद्र विराजमान आहे. मस्तकावर मुकुट असून त्रिनयनी असलेल्या या देवीच्या मुखावर प्रसन्न हास्य आहे. चार भुजांमध्ये अंकुश-पाश-वरमुद्रा व अभयमुद्रा दर्शवितात. रत्नसिंहासनांवर बसलेली असून एक पाय कमळावर, तर दुसरा मांडीवर आहे. तिचा ज्योतिर्मय वर्ण तेजाचे प्रतीक असून तो बुद्धीची जडता व अहंकार नष्ट करतो. त्यामुळे साधकाची साधना उन्नत होऊन त्याला ब्रह्मज्योतीचे दर्शन घडते. हातातील अंकुश संयमाचे प्रतीक असून मनरूपी उद्दाम हत्तीवर ती अंकुशाने प्रहार करते. साधकांच्या इंद्रियवृत्तींना बंधन असावे म्हणून एका हाती पाश धारण केलेला आहे. तिची वराभयमुद्रा मातेचा स्नेह दर्शविते.
५) देवी भैरवीः देवी भैरवीची मूर्ती फार अद्भुत असते. ती एकाच वेळी शांत व रौद्र, कठोर व कोमल असे तिचे स्वरूप आहे. ती काल भैरवाची पत्नी म्हणून भैरवी. सहस्रसूर्याच्या तेजाप्रमाणे ती तेजस्वी असून लाल रंगाचे वस्त्र परिधान करते. गळ्यात नरमुंडमाळा असून चतुर्भुजा आहे. पैकी दोन हातांमध्ये पुस्तक व जपमाळ आहेत. तर दोन हात अभय आणि वर देणारे आहेत. मुखकमल पुष्पाप्रमाणे सुंदर असून रक्तवर्णा आहे. तिचे लाल वस्त्र वासनांचे प्रतीक आहे. भैरवी समस्त जिवांना बीजरूपाने प्रथम आपल्या गर्भात धारण करते व नंतर स्वतःच्या तप व इच्छाशक्तीच्या बळाने ज्ञानाचे प्रतीक होत. देवी भैरवी सृष्टी स्थिती लयाचा आधार आहे.
६) देवी छिन्नमस्ताः एकदा देवी पार्वतीच्या दोघी सख्या, डाकिणी व वर्णिनींना खूप भूक लागली. त्यांनी व्याकुळ होऊन देवी जगन्मातेला त्यासाठी विनविले तेव्हा देवीने आपले मस्तक छिन्न करून डाव्या हातात धरले आणि त्यामुळे तिच्या कंठातून रक्ताच्या तीन धारा वाहू लागल्या. उजवीकडील धार डाकिणी पिऊ लागली, तर समोरील धार वर्णिनी पिऊ लागली. मधली धार देवीने हाती धरलेल्या स्वमुखात पडू लागली. त्यानंतर देवी पुन्हा पूर्ववत झाली. मस्तक छिन्न केल्याने नाव पडले छिन्नमस्ता. अशी ही देवी महातेजस्वी असून चतुर्भुजा आहे. गळ्यात मुंडमाळा धारण केलेल्या असून तिच्या कंठातून निघालेली रक्ताची धार स्वतःच पिते याचा अर्थ देवी स्वयं भोक्ता भोग्य आणि भोग होय. कंठातून निघालेली रुधिर धारा सात्त्विक राजसिक व तामसिक भोगांचे प्रतिरूप होय. दोघी सख्यांपैकी डाकिणी ज्ञानमयी विद्याशक्ती तर वर्णिनी तमोमयी अविद्याशक्ती होत.
७) देवी धूमावतीः धूमावती धुराने वेढलेल्या अग्निशिखेप्रमाणे रहस्यमय असून ती प्रकाश अथवा अप्रकाशही नाही. दक्ष प्रजापतींच्या यज्ञात सतीने उडी घेऊन स्वतःची आहुती दिली, त्यावेळी यज्ञस्थळी जो धूर निर्माण झाला त्यातून धूमावतीचा जन्म झाला. अत्यंत रूक्ष शरीर असून मुख विशाल आहे. ही करालमुखी सदैव तहान-भुकेने व्याकुळ असून भयप्रद व कलहप्रिय आहे. ती कृष्णवर्णी-चंचल आहे. मलिन वस्त्र धारण केले असून केशकलाप रूक्ष आहे. देवीचे हात सर्पाप्रमाणे व डोळे रूक्ष आहेत. एकदा देवी पार्वती तहानेने अत्यंत व्याकुळ झाली असता तिने स्वयं महादेवाला पिऊन टाकले. तेव्हा तिच्या सर्वांगातून धुराचे लोट निघू लागले. शिवाने स्वमायेने पुन्हा पूर्ववत शरीर धारण केले व ते पार्वतीला म्हणाले, ‘प्रत्येक पुरुष शिव व प्रत्येक स्त्री पार्वती असते.’ परंतु पार्वतीने शिवाला भक्षण केल्याने ती विधवा झाली आहे. भोगाच्या कामनेने विवेक नष्ट होतो. विषयान्ध जिवाची देहासक्तीचे प्रतीक म्हणून तिचे नेत्र रूक्ष आहे व तिचे मलिन वस्त्र व केशकलाप तसेच तिच्या रथावरील ध्वजचिन्ह कावळे इत्यादी मृत्यूचे निदर्शक होत. शरीराची भोगेच्छा जिवाला बद्ध करते. जन्म-मृत्यूच्या चक्रातून जिवाला मुक्त करण्यासाठी देवी धूमावतीने आपल्या ओंगळ रूपातून दाखवून दिले आहे की असे ओंगळ नसावे.
८) देवी बगलामुखीः या देवीचे रूप गंभीर व रौद्र आहे. वर्ण तप्त सुवर्णाप्रमाणे आहे. ती चतुर्भुजा असून कमळासनावर बसलेली आहे. त्रिनयना असलेल्या बगला देवीच्या हातात मुद्गल पाश आहेत. एका हाताने तिने शत्रूची जीभ ओढून धरली आहे. शरीराप्रमाणेच पिवळेजर्द वस्त्र परिधान केले आहे. जे तमोगुणाचे आवरण दूर करून रजोयुक्त सत्त्वगुणाचे प्राबल्य दर्शविते. तिच्या हातातील मुद्गल मोहमुदग्ल असून मोहरूपी विष नष्ट करण्याचे निदर्शक आहे. शत्रूची जिव्हा ओढते म्हणजेच जिव्हारूपी शत्रूचे हनन करते. जिभेने माणूस रसाचे सेवन करतो व साधनेत विघ्न येते. त्याचप्रमाणे कटु शब्दांचा प्रयोग करून हीच जिव्हा जिवाची अधोगती करते.
९) देवी मातंगीः पुराणकाळी मातंग ऋषींनी कदंब वनातील सर्व वृक्ष व प्राण्यांना वश करण्यासाठी अनेक वर्षे घोर तप केले होते. त्यावेळी प्रसन्न होऊन देवी मातंगी प्रकट झाली होती. मातंगी चतुर्भुजा, त्रिनयना असून वस्त्रालंकारांनी सजलेली आहे. रत्नसिंहासनी बसलेली मातंगी देवीच्या हातांमध्ये अंकुश, तलवार, पाश व खडग आहेत. ही अस्त्र-शस्त्रे साधकाच्या चंचल चित्तवृत्तींवर आघात करून त्याला सावध करतात. तिच्या मस्तकावरील अर्धचंद्र अमृत रसाचे वर्णन करतो व साधकाचा रजोगुणी अहंकार नष्ट करतो. तिचे त्रिनयन चंद्र, सूर्य व अग्नीचे प्रतीक होत. सत्त्व-रज-तम या विविध अहंकारांपैकी राजसिक अहंकारातून मनस्तत्वाची निर्मिती होते. देवी तिच्या दैवी आकर्षणाने साधकाच्या राजसिक अहंकारचे शोषण करते म्हणून ती श्यामवर्णी आहे. या देवीची साधना करणारा साधक मेधावी होऊन चौसष्ट कलांमध्ये निपुण होतो.
१०) देवी कमलाः कमलासनावर प्रतिष्ठित कमलादेवी सुवर्णवर्णा असून तिच्या चहू दिशांना सोंडेवर सुवर्णकलश घेतलेले चार हत्ती आहेत. चारी हत्ती कलशातून देवीवर अभिषेक करीत आहेत. देवीच्या डाव्या हाती कमळ असून उजवा हात अभयमुद्रा दर्शवितो. मस्तकावर रत्नजडित मुकुट असून तिने भरजरी वस्त्र परिधान केलेले आहे. देवीची तेजस्वी सुवर्णकांती विशुद्ध ज्ञानाचे प्रतीक होय. देवी त्रिगुणात्मिका असून सारा जगतप्रपंच व्यापून आहे. चार हत्ती अर्थमयी-शब्दमयी-चक्रमयी व देहमयी सृष्टीशक्तीचे परिणामस्वरूप होत. ‘क’ चा अर्थ भोग सुख असा आहे. म्हणून तिच्या हातातील दोन कमळं ऐहिक व पारमार्थिक भोगाचे प्रतीक होत. साधकाला साधनेच्या उत्तुंग अवस्थेत ऐहिक भोग सुख तुच्छ वाटू लागते. याचे प्रतीक म्हणून कमळ. पूर्ण उमललेले कमळ षट्‌चक्रांचे निदर्शक होय. तिचे भरजरी वस्त्र म्हणजे तिने स्वतःचे तेज लपवून ठेवण्याचे निदर्शक असून त्याद्वारे ती आपले मोक्षदायी स्वरूप लपवून ठेवून जिवाला मायेच्या बंधनात बांधून ठेवते.
अशाप्रकारे या दशमहाविद्यांचे वर्णन तन्त्रात वर्णन केलेले आढळते. थोडक्यात सांगायचे झाल्यास देवी काली व तारा साधकाची अंतर व बाह्य श्रवणशक्ती विकसित करतात. देवी षोडशी व भुवनेश्‍वरी आमची अंतर-बाह्य दर्शनशक्ती विकसित करतात. परंतु त्यासाठी आवश्यक तीन मार्ग म्हणजे वायू-जल व स्थळ ज्यांचे रक्षण करतात देवी धूमावती-मातंगी-बगला-भैरवी आणि कमला-छिन्नमस्ता, म्हणूनच या दशमहाविद्या होत. या सर्वांच्या कृपेनेच साधक परार्थविद्या व सर्वार्थसिद्धींचा लाभ करून घेतो.
या देवि सर्वभूतेषू शक्तिरूपेण संस्थिता|
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥

ज्योतिष्याचार्य
डॉ.सुहास रोकडे
www.astrotechlab.weebly.com

Featured Post

Read Google books-Astrologer Dr.Suhas

www.astrotechlab.weeebly.com >